क्या करें, मन नहीं मानता, लिखना पड़ता है।
साल था 1993, दिन था 9 अप्रैल का
और कर्नाटक-तामिलनाडु की जॉइंट पुलिस-फॉरेस्ट की टीम निकली थी चंदन तस्कर वीरप्पन की तलाश में।
टीम का नेतृत्व कर रहे थे IPS ऑफिसर के. गोपालकृष्णन।
उनको चुनौती मिली थी वीरप्पन द्वारा की गई एक दिन पूर्व 8 अप्रैल को पुलिस इन्फॉर्मर की हत्या से। मिट्टूर जिले के पालर बेस से रवाना हुई पुलिस टीम कावेरी नदी के क्षेत्र में।
उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि वीरप्पन कितने खतरनाक इरादे से ताक में बैठा था। अचानक हुए लैंडमाइंस ब्लास्ट ने बस के फरखच्चे उड़ा दिए।
हाल बिल्कुल पुलवामा हमले जैसा हुआ जवानों का। 22 पुलिस-फॉरेस्ट कर्मी शहीद हुए। पीछे जीप के पायदान पर खड़े मुस्तैदी से वाच कर रहे IPS के गोपालकृष्णन को भारी चोटें आईं, बचने की उम्मीदें नहीं थी मगर इस घटना के महत्वपुर्ण गवाह होने की इच्छाशक्ति ने 9 ऑपरेशंस कर जिंदा रहने की ताकत दी।
पुलिस ने 122 लोगों को गिरफ्तार किया, वीरप्पन की पत्नी भी उनमें शामिल थी। सजाएं हुईं।
भाजपा ने आज वीरप्पन की पुत्री को पार्टी के बड़े शान से भाजपा जॉइन करवाई है।
यदि वीरप्पन की जाति के वोटबैंक के मद्देनज़र यह निर्णय लिया तो उस IPS ऑफीसर ने क्या उस समय गलत निर्णय लिया था वीरप्पन को पकड़ने का, जो उन्हीं की जाति का था। उन्होंने तो जाति का मान कर नहीं छोड़ा अपराधी को। या फिर गोपालकृष्णन के साथ मजाक किया गया था।
ये सत्ता के घृणित खेले अच्छे अधिकारियों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि भाई रहने दो, ऐसा ही चलता है।
क्या कभी कोई पार्टी पुलवामा हमले के आरोपी आतंकियों के परिवारों को टिकिट थमा देगी और मजाक बना देगी शहीदों का। क्या ऐसा हो सकता है, क्यूँ नहीं हो सकता?
उन 22 शहीद पुलिसकर्मियों के परिवार अभी कहां होंगे या क्या सोच रहे होंगें वीरप्पन की बेटी के भाजपा जॉइन करने पर, किसी को चिंता है उनकी? या उनकी चीत्कारें समय के साथ समाप्त हो चुकी हैं