नागरिकता कानूनों के समर्थकों और विरोधियों के बीच दिल्ली के कई स्थानों में जारी हिंसा को देखकर यही कहा जा सकता है कि आशंका के अनुरूप केंद्र सरकार और कतिपय वे शक्तियां अपने राजनैतिक लक्ष्यों की ओर आगे बढ़ने में कामयाब होती तो दिख रही हैं, लेकिन समाज व देश को उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसलिए क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों को तिलांजलि देकर इस हिंसा को सम्मिलित प्रयासों से तुरंत रोका जाना चाहिए। केंद्र सरकार की यह न सिर्फ सांवैधानिक जिम्मेदारी है, बल्कि उसे इस कानून को लेकर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण तैयार कर विरोधियों से बातचीत करनी चाहिए क्योंकि यह उसका लाया हुआ कानून है जिसे लेकर लोगों को संतुष्ट करना उसका फ़र्ज़ है।
देश में विभाजनकारी, वर्चस्ववाद और श्रेष्ठी भाव पर आधारित सामाजिक दर्शन का राज कायम करने पर आमादा भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार कुछ समय पूर्व लाए गये सीएबी व संशोधित नागरिकता कानूनों के खिलाफ उठ खड़े हुए आंदोलनों से बौखलाई हुई है। इसलिए शाहीन बाग और उसके जैसे देश भर में चलने वाले आंदोलनों को कुचलने में नाकाम रही केंद्र सरकार की इस हिंसा में भूमिका और योगदान स्पष्ट दिखलाई दे रहा है जिसके अंतर्गत शनिवार से लेकर अब तक जारी दिल्ली की हिंसक घटनाओं में चार-पांच लोग मारे गये हैं तथा अनेक ज़ख्मी हो गये।
केंद्र सरकार ने इन कानूनों का देशव्यापी विरोध देखते हुए भी लोगों से संवाद करने की पहल नहीं की। इसकी बजाय उसे देशभक्ति और राष्ट्रीय मुद्दे से जोड़कर काऊंटर नैरेटिव खड़ा करने इसके विरोधियों के प्रति नफरत फैलाने का काम किया। इसे इस्लाम समर्थित आतंकवाद, पाकपरस्ती, हिंदूविरोधी और न जाने क्या-क्या कहकर बदनाम किया गया। सरकार व भाजपा समर्थकों ने इसे लेकर जो विषवमन किया है, उसी का परिणाम हम कल की हिंसा में देख रहे हैं।
विभिन्न विधानसभों के पिछले लगभग आधा दर्जन चुनाव हारने के बाद भाजपा की निगाहें अब बिहार के चुनावों पर हैं। लगातार सिमटती भाजपा और प्रदेशों के खोने तथा राज्यसभा में कमजोर होने के डर से अपने समर्थकों और सरकारी मशीनरी को आंदोलनकारियों को कुचलने के काम में उतार चुकी है। विरोधियों पर कहर बनकर भाजपा कार्यकर्ता कैसे टूट पड़े हैं, इसके कई उदाहरण हाल में देखे गये हैं। यह सारा कुछ सरकार की शह तथा निगरानी में हो रहा है जिसका सबूत यह है कि ज्यादातर घटनाओं में पुलिस अपराधी तत्वों का या तो संरक्षण कर रही है या उन्हें मदद कर रही है- स्वयं हिंसक बनकर।
दंगों में पुलिस को पत्थर चलाते, तोड़-फोड़ करते और सरकार विरोधियों की शिनाख्त कर उनके साथ हिंसा करने के भरपूर वीडियो वायरल हो चुके हैं। एएमयू के प्रदर्शनकारियों पर सरेआम एक युवक गोलियां चलाता है, तमंचा लहराते हुए नारेबाज़ी करता है और पुलिस मौन खड़ी उसे देखती रहती है। ऐसे ही, जेएनयू के परिसर में घुसकर नकाबपोश युवा एक विशेष विचारधारा के छात्र-छात्राओं को पीटते हैं, जिनकी शिनाख़्त भाजपा से जुड़े अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र-छात्राओं के रूप में होती है लेकिन अब तक वे पकड़े नहीं गये हैं।
सेना की वर्दी में पुलिस वाले और पुलिस की वर्दी में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र सरकार विरोधी प्रदर्शनों पर लाठियां बरसा रहे हैं। कल की हिंसा और टकराव के जो दृश्य आ रहे हैं वे न सिर्फ स्थिति के विस्फोट के स्तर तक पहुंचने की गवाही दे रहे हैं बल्कि ये भी बतला रहे हैं कि हालात अभी और भी ख़तरनाक शक़्ल लेने जा रहे हैं क्योंकि सरकार और भाजपा की इसे रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि उसकी रुचि तो इस टकराव के बढ़ने में ही है। हिंसा के जरिये उसे अपनी ताकत बढ़ने का विश्वास है। यह तात्कालिक फायदा उठाने की रणनीति तो हो सकती है परंतु उससे कानून-व्यवस्था का राज तहस-नहस हो जाएगा जिसकी बुनियाद पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है। दरअसल, सत्ता में बने रहने और सांम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सरकार व भाजपा बेहद ख़तरनाक खेला खेल रही हैं।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्वीकार किया था, कि दिल्ली में पराजय का संभावित कारण उनकी पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान नफ़रत से भरे बयान देना रहा है। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने तो बाकायदा यह भी मान लिया था कि आम आदमी पार्टी छोड़कर भाजपा में आए कपिल मिश्रा के परस्पर घृणा फैलाने वाले वक्तव्यों के कारण भाजपा हारी है। वही कपिल मिश्रा बाकायदे धमकी देते हैं कि दो दिन में अगर शाहीन बाग को आंदोलनकारी खाली नहीं किया जाता तो यह काम सीएए समर्थक करेंगे। ताज़ा घटनाक्रम बतलाता है कि कल की हिंसा में मिश्रा की उपस्थिति भी दर्ज हुई है लेकिन वे कानून की पकड़ से अछूते हैं। कपिल व ऐसे ही लोग सीएए विरोध के ख़िलाफ़ काऊंटर नैरेटिव खड़ा कर रहे हैं- प्रदर्शन के खिलाफ सरकार प्रायोजित प्रदर्शन कर और उन पर सरकार समर्थित हमले कर।
अपराधों की रोकथाम में भारी भेदभाव ने भी स्थिति को यहां तक पहुंचाया है। गोरखपुर अस्पताल में बच्चों को बचाने वाले डॉ. कफ़ील को जेल भेजा जाता है और कपिल को पुलिस हाथ लगाने की हिम्मत नहीं करती। कर्नाटक के एक स्कूल में उन बच्चों पर राष्ट्रद्रोह का मामला बनता है जो एक ऐसा बालसुलभ नाटक करते हैं जिसकी विषयवस्तु नागरिकता कानून है, जबकि उसी राज्य में बाबरी मस्जिद गिराने की घटना पर आधारित नाटक को सराहना मिलती है। वारिस पठान की तेजाबी वाणी की लोगों ने भर्त्सना की (जो सर्वथा उचित है) और जिसके लिए पठान की माफ़ी भी आती है (वह भी अपरिहार्य थी), पर ऐसे सैकड़ों लोगों के बयान केवल उनके धर्म विशेष से जुड़ाव के कारण कार्रवाई से बचते चले जा रहे हैं।
दिल्ली की इस घटना को अगर भाजपा या कोई भी राजनैतिक दल, संगठन और लोग हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देख रहे हैं और सरकार भी उसी तरह से बरताव कर रही है, तो कोई शक नहीं कि मिल-जुलकर देश-समाज को आग की लपटों में ढकेला जा रहा है। फ़ौरी तौर पर शायद कुछ लोग इससे फ़ायदा पाकर खुशी और सुकून महसूस कर रहे होंगे पर ये लपटें हमारे घरों तक पहुंचने में देर नहीं लगाएंगी। इसलिए सभी लोग इस आग को बुझाने में मदद करें। सरकार इसकी अगुवाई करे और दोषियों के विरूद्ध उचित कानूनी कार्रवाई करे- बगैर यह देखे कि आग किसने लगाई है।
*गुलाब पटेल* ✍